Saturday, March 25, 2017

रेवती

                                  
दुनियां में आना गलती थी ना जाने किस प्रयोजन से आ गयी ? शायद उसे आना ही नहीं चाहिए था । पर यह उसकी गलती नहीं थी । माँ के गर्भ में उसे मारने की असफल साजिशें और पैदा होने के कुछ वर्षों तक उस मासूम को मारने की संपूर्ण तरीके नाकामयाब हो गए । हाँ, शायद नियति की यही मंजूर था । आज भी वह प्रकृति के अद्वितीय स्वरूपों को देखकर खुश होती रेवती यह सोचती की उसे आने से क्यों रोका जा रहा था । वह भी तो अपने माँ बाप का अभिन्न अङ्ग थी ?
रेवती की जिज्ञाषा को नाकारा नहीं जा सकता , पांच साल की ही अवस्था में उसने घरेलू कामों में माँ का हाथ बंटाना अपना दिनचर्या बना लिया
था  ।
बाप की शराब की लत और माँ की ख़ामोशी और समाज में फैली दुर्व्यवस्था अज्ञानता ही शायद वो कारण थे जो रेवती को इस दुनिया में आने के बाद भी उसे स्कूल की चौकठ तक ना जाने
दिए । इस व्यवस्था से लड़ती उसकी माँ एक दिन मिटटी का तेल डालकर आत्महत्या कर ली और छोड़ दिया उस अभागन को इस दुनियां में !!
उसके पिता के पास जब शराब के लिए कुछ ना बचा तो उसने बेंच दिया ना ना नहीं नहीं , समाज को दिखाने के लिए उसकी शादी कर दी । चौदह साल की रेवती उस समय बेहोश थी और उसके पिता ने उसे फेरा दिलवाया।
मासूम कली जो समय से पहले खिलने पर मजबूर हो गयी , उसे अनेकानेक तरह की प्रताणनाए दी जाने लगी ।
आज, चूँकि रेवती ने एक बच्चे के बजाय एक कन्या को जन्म दिया है इसलिये उसके  ससुराल वालों ने उसे घर से निकाल दिया । कोई कुछ ना बोला , छोड़ दिया उसे इस दुनियां में !!
वह रेवती अब इलाहाबाद आ गयी है। कभी किसी कवि की कविता में "पत्थर तोड़ती है " तो कभी "उन भेड़ियों "से बचती फिरती है ।और  ना जाने कब तक?? छाया में बैठी उसकी बेटी जो रोटियां तॊड रही है हमसे यह प्रश्न पूछ रही है की "क्या ये नियति ने लिखा या हमने??"क्या उसकी या उन जैसों की यही नियति है ?? ज़रा सोचिए ।

                                 

केशव अब देर ना करो.

केशव अब देर ना करो.

समय ने ली अब करवट कि, केशव,
तिमिर घनघोर होता जा रहा,
विषाक्त हो रही हवाएं अब केशव
बसेरा पंछियों का उजड़ता जा रहा,
हाहाकार है चहुँ ओर केशव,
पायल बजने से डरती है अब,
लहू का खेल है चहुँ ओर केशव,
आवाजें स्वतंत्र, दबती जा रही ||1||

पुत्र-मोह में धृतराष्ट्र फिर अँधा हुआ है,
सभ्यता फिर समाज में नंगा हुआ है,
पटकथाएं लाक्षागृह की लिखी जा रही हैं,
द्रौपदी धर्मराजों की सभा में चीखी जा रही
सकुनियों ने रचा है नव षड्यंत्र केशव,
पितामह भीष्म भी खामोश बैठा!!
हर द्रौपदी के चिर को है खतरा है केशव,
दुःशासनों की तादाद बढ़ती जा रही !! ||२||

प्रलय की एक छोर पर मानव खड़ा है,
नखों को तेज़ किये दानव बना है,
छिपा है रूप मारीच कई अब,
आया है साधु-वेश में रावण नीच अब,
वेद-प्रवचन को पाखंड का पर्याय करके,
बने स्वघोषित ईश्, मनुजता को असहाय करके,
मंदिरों-मस्जिदों में अस्मिता लूटती हैं अब,
अबलाएँ तेरे सामने चीखतीं हैं अब  ||३||

किया था ग्राह से गजराज का ज्यों तार केशव,
दिया था अर्जुन को जैसे गीता का सार केशव,
किया था से ज्यों शिशुपाल का संहार केशव,
दिया था सुदामा का ज्यों उद्धार केशव,
कहाँ हो इस संकट की घडी में केशव?
भूल गए प्रण, लिए थे जो कुरुक्षेत्र के समर में?
वही विश्वरूप की है हमें है इंतजार केशव
तज बांसुरी कर लो सुदर्शन धार केशव ||४||

Monday, March 6, 2017

मैं शब्द हूँ

मैं शब्द हूँ,
सृष्टि के आदि से लेकर मानव के प्रगति का हस्ताक्षर हूँ
कहीं पत्थरों पर चोट करके अंकित हुआ,
तो कहीं हृदय पटल पर ना दिखने वाला हूँ।
मैं कुछ वर्णमाला और व्याकरण का बस मेल नहीं
मैं पावस और पावन वर्तनी का आलेख हूँ।
मैं शब्द हूँ।

रात की खामोशी में हूँ
तो पक्षियों के कलरव में हूँ,
पर्वतों को चोट करती गँगा की धार में हूँ
तो ताज़गी घोलती पूर्वा बयार में हूँ ।
मैं शब्द हूँ ।।

मैं शंकर के डमरू में हूँ
तो काबे की अज़ान में हूँ,
ठंड में ठिठुरते फ़क़ीर के दुआ में हूँ
तो बिन बोले माँ के आशीर्वाद में हूँ।
हाँ मैं शब्द हूँ !!
बस शब्द हूँ!!