Wednesday, November 30, 2016

जाएँ कहाँ

          "जाएँ कहाँ ”

आधुनिकता के इस दौर में,
जीवन की परिभाषाएं बदल गईं,
हँसते खेलते दिनों के याद की,
तस्वीरें पिघल गयीं,
आधुनिकता के इस दौर में......

उस गाँव की, उस छाँव की पानी,
अतीत में ओझल हो गईं,
उस गीत की,उस प्रीत की निशानी,
प्रभात की कोयल भी खो गयी,
आधुनिकता के इस दौर में.........

उस धूप में पसीनें बहाते,
श्रमिक की, कर्मस्थली भी ना मिली,
उस रात के, झींगुरों के आवाज़ की,
प्रेमांजलि भी ना मिली,
आधुनिकता के इस दौर में.........

उन दादुरों की अभ्यागतों को,
बुलाने की कौतूहली भी ना मिली,
उस सिंह की स्वाभिमान निशानी,
पुण्यधाम आरावाली भी ना मिली,
आधुनिकता के इस दौर में.........

सोचा क्या ये सुप्त हो गईं,
या काल-प्रवाह में विलुप्त हो गईं,
क्या इनका होगा कहीं अस्तित्व?
हाँ, दूर गाँवों में ही होगा स्थायित्व?
तो फिर आओ कर्म की ओर मुख करें,
करने को देश सुखी, गाँव की ओर रुख करें |
-अविनाश कुमार पाण्डेय 'अवि'

Thursday, November 24, 2016

खेल - जीवन

        "खेल"
तू खेल, तू खेल,
दिवा में खेल सपनो में खेल,
मुश्किलें तन मन से झेल ,
तू खेल, हां ,बस तू खेल |

जीवन है कैरम-गेम,
मानव औ पासे हैं सेम,
मग कष्टों को दे ठेल ,
ले निकर बहार कर प्रभु मेल,
तू खेल ,बस तू खेल |
जीवन है प्यारा क्रिकेट,
प्राणी सब हैं इसके विकेट,
आउट होंगे कब,बात बहुत सीक्रेट ,
हर दिन ,हर क्षण, एक गेंद समझकर खेल,
तू खेल ,हाँ तू खेल |
ग़मों के पर्वत को दे धकेल,
जीवन कानन बना खुशियों का मेल,
खेल-खेल में पढ़ना सिख ,
ना ले कभी दया भीख,
तू खेल ,अब तू खेल |

खेल  है गणित,भौतिक ,रसायन शास्त्र,
लक्ष्य है तेरा ज्ञान-चक्षु मात्र,
कर सत्य को तू आत्मसात,
हो निश्चिंत, कर भय को परास्त,
अतएव हे मनु ! तू खेल,बस तू खेल |
जीवन संघर्ष है बड़ा,
पथ में कंटके मिले भला,
हो जाये तेरे पैर लहूलुहान,
ना रुक ,ना झुक,ना हार मान,
तू खेल ,बस तू खेल |

हतोत्साहित ना हो हार से,
कुटिल कर के जटिल प्रहार से,
रुके ना तू ,विफलता की मर से ,
भटके ना तू कुसंगति के पुकार से
हे प्राणी ! तू खेल ,तू खेल |
पर ध्यान रहे, ना अभिमान रहे,
हर क्षण नियम संज्ञान रहे,
विश्वास रहे स्वयं पर,लक्ष्य ध्यान रहे ,
ना हो कभी कर्मविमुढ़,प्रभु प्रति तेरा सम्मान रहे
करने को जीवन सफल ,हार भी ख़ुशी से झेल
तू खेल तू खेल,अब तो खेल |
-अविनाश कुमार पाण्डेय 'अवि'

Wednesday, November 23, 2016

एकांकीपन

सूरज तू अकेला क्यूँ चलता है?
क्या तेज शौर्य और तेरी प्रचंड
किरणे तेरी दुश्मन हैं ?
तू सदैव अकेला ही उदय हुआ
औ अकेला ही अस्त !
दूसरी तरफ चाँद है,
उसमे तेरे जैसी चमक तेज नहीं है,
पर उसके साथी हैं तारे असंख्य,
अगणित अनोखे करते विभामंडल
को सुशोभित और मनोरम,
शायद वे चन्द्रमा की शीतलता
के कारण ही उसके मित्र हैं!
तो क्या मैं ये मान लूँ
की सूरज की तीक्ष्ण और तप्त
किरणे ही उसका दुश्मन हैं ?
क्या प्रसिद्ध होने का मतलब
अनगिनत दोस्तों का होना है?
प्रसिद्धि क्या है ? मुझे नहीं पता !
पर अगर आप को पता हो तो बताएं |
मुझे जो लगता है वो ये कि
सफलता या आपकी विश्वसनीयता का
मात्रक आपका निस्वार्थ कर्म है
आपकी पीछे या साथ खडी भीड़
से इसका वास्ता नहीं !
और ना ही एकाकीपन एक अपराध है !
-अविनाश कुमार पाण्डेय 'अवि'

न दैन्यं न पलायनम्

जब भी कभी मैं जिंदगी, सफलता-विफलता, रिश्ते-नाते, प्यार, मोहब्बत की बातें सोचता हूँ तो अनायास ही मेरा नाम जोकर का वो गाना-'कल खेल में हम हों ना हों, गर्दिश में तारे रहेंगे सदा....जीना यहाँ मरना यहाँ...इसके सिवा जाना कहाँ' याद आ जाता है।
कभी कभार तो अपेक्षाएं इतनी भारी हो जाती हैं कि उनको पूरा करने के लिए लगता है कोई भीष्म प्रण ही लेना पड़ेगा। बात भी यथार्थ है, अगर बड़ी सफलता पानी है तो कर्म भी बड़े करने पड़ेंगे । सामने कोई हो, कितना भी बड़ा हो आपके साहस के आगे वो कोई नहीं है । जिस भीष्म ने भी ऐसा दुःसाहस किया है उसके आगे स्वयं सुदर्शनचक्रधारी भी अपनी प्रतिज्ञा तोड़ते नजर आएं हैं ।आजु ना हरिहि शस्त्र गहाउँ, आपको भी कहना पड़ेगा, विपत्तियां तो आती हैं, जाती हैं, लेकिन, मित्र आप विपत्तियों के स्वामी बनना सीखना होगा । सत्य की जयघोष करते हुए, अर्जुन प्रण लेना पड़ेगा- ना  दैन्यम ना पलायनम, अथार्त् ना मैं अपने शत्रुओं पे तनिक भी दीनता दिखाऊंगा और ना ही पलायन करूँगा, फिर भले ही मौत ही क्यों ना आ जाये, हतो वा प्राप्यसि स्वर्गं, जित्वा वा भोज्यसे महिम !!
और याद रखना ही होगा, सफलता उन्ही की दासी रही है जिनमे ये दुःसाहस भरा है।
-अविनाश कुमार पाण्डेय 'अवि'

अतीत के पन्ने !

कई बार आपके द्वारा अतीत में किये गए व्यवहार आपको बदल देते हैं । उस ट्रांजीशन स्टेट में फिर जब अतीत की याद आती हैं तो आत्मसम्मान पुरानी अज्ञानता पे हावी हो जाता है और आप स्ट्रेंज हो जातें हैं।आप अतीत की घटनाओं से ग्लानि से भर जातें हैं । उस समय आपको पता होता है की इन चीजों को बाहर नहीं लाना चाहिए ......आप कैसे उन नकाबों के पीछे चेहरे को पढ़ने में विफल हो गए थे ! जिन लोगों को आपने सदा अपना समझा था, जिन्हें माना था कि वे ही वो चार कंधे हैं और जिनके ख़ुशी के लिए आपने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था | आप सोचते हैं कि किस अज्ञानता में आप जी रहे थे, आप अगर उस समय अपने पे ध्यान दिए होते तो आपकी ये हालत नहीं होती |
फिर आप सत्य की ओर खींचे चले जाते हैं ।
आप अतीत को बदलना चाहते हैं, जीवन के टाइमलाइन से डिलीट करना चाहते हैं, पर इसपे आपका बस नहीं | आपका उद्द्वेलित मन शांत होता है और अंततः आप मुकेश का गाना "नदिया चले चले रे धारा, चंदा चले चले रे तारा, तुझको चलना होगा" गाते हुए, सत्य को आत्मसात करके आगे बढ़ जातें हैं । "शायद यही जीवन है ।"