"जाएँ कहाँ ”
आधुनिकता के इस दौर में,
जीवन की परिभाषाएं बदल गईं,
हँसते खेलते दिनों के याद की,
तस्वीरें पिघल गयीं,
आधुनिकता के इस दौर में......
उस गाँव की, उस छाँव की पानी,
अतीत में ओझल हो गईं,
उस गीत की,उस प्रीत की निशानी,
प्रभात की कोयल भी खो गयी,
आधुनिकता के इस दौर में.........
उस धूप में पसीनें बहाते,
श्रमिक की, कर्मस्थली भी ना मिली,
उस रात के, झींगुरों के आवाज़ की,
प्रेमांजलि भी ना मिली,
आधुनिकता के इस दौर में.........
उन दादुरों की अभ्यागतों को,
बुलाने की कौतूहली भी ना मिली,
उस सिंह की स्वाभिमान निशानी,
पुण्यधाम आरावाली भी ना मिली,
आधुनिकता के इस दौर में.........
सोचा क्या ये सुप्त हो गईं,
या काल-प्रवाह में विलुप्त हो गईं,
क्या इनका होगा कहीं अस्तित्व?
हाँ, दूर गाँवों में ही होगा स्थायित्व?
तो फिर आओ कर्म की ओर मुख करें,
करने को देश सुखी, गाँव की ओर रुख करें |
-अविनाश कुमार पाण्डेय 'अवि'