था बोया बीज एक किसान ने!
बीज, जो अपने भाग्य से था
अनभिज्ञ ,
भविष्य से अनजान ,मासूम, नादान!
गया धरती के गर्भ में,
सोचा कहाँ होगा मेरा
अस्तित्व ?
शायद मैं बीज ही अच्छा था !
सांस थी फूली, था डरा !
आया तरस प्रकृति को,
चली मंद पवन बूँदें बरसी
जरा!
हुआ अंकुरित था संशय में,
बाल बुद्धि वह संकुचित !!
समय के प्रवाह में, प्रकृति
से लड़कर हुआ बड़ा,
था मुदित विजय मद में, शान
से जो था खड़ा,
पर जब नजरें दौड़ाई तो देखा ,
वह अकेला नहीं था ,
शायद अकेला किसी काम का भी
नहीं होता |
मित्र मण्डली में मिल, होने
लगा तरुण,
कहते हैं कुछ खर पतवार
उग आये थे उस बाग़ में,
दोष धरा का ना, ना रामू का
था,
बसप्रकृति को उसका
यूँ सीधे बढ़ना गंवारा ना था
|
कहते हैं विद्वान, तप कर
लोहा, लोहा बनता है,
पा तप अग्नि का पीत स्वर्ण
सूरज सा चमकता है,
बस यही बात उस नव पौध ने
धारण किया,
किया संघर्ष हुआ पोषक, पुत्र
व्रत पालन किया,
संग्रहित किया कुछ भी नही
खुद के लिए
जो किया कर्म वो था जन
क्षुधा पूर्ति के लिए |
पर हाय री मानवता, तूने
कैसा कुकृत्य रचा,
कर अपने पारितोषक का भक्षण,मानवता
को शर्मसार किया,
निजता निज विकास की होड़
में, कर दिया संहार बड़ा
हुई धरा नंगी प्रकृति में
है संताप बड़ा |
पर आ होश में ताज मूढ़ आवेश
मद,
जब धरा धरणी का श्रृंगार ही नहीं
तब तेरा भी अस्तित्व नहीं ,
मिलता है फल हर पुण्य
सुकृत्य का,
पर तेरा कुकृत्य तो काफी
बड़ा है!
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