Wednesday, January 18, 2017

क्या लिखूं

कभी- कभी मेरा मन अतीत के यादों में खो जाता है. उन यादों को,जब मैं कागज पर अवतरित करने की सोचता हूँ तो अपने को असमर्थ पाता हूँ . उन धुंधली तश्वीरो को बनाना वास्तव में काफी कठिन काम है. मेरी इसी असमर्थता को बयां करती मेरी कविता-

जब शब्द नहीं आते हो,
विचार बने मिट जाते हो,
कुछ करने ना करने की लाचारी हो
तब क्या लिखूं?
                                  जब हर एक क्यारी के पौधे ,
                                  हो जाये यूँ सडे खड़े,
                                  जब भाव-वेदना की ज्वाला ,
                                  सो जाये यूँ मरे पडे,
                                 तब क्या लिखूं?
                                                                       
जीवन की सार्थकता पर ,
खडे हों प्रस्न अनगिनत,
झंझावत सी उठती क्रोधाग्नि,
मन को जलाये अनवरत,
तब मैं क्या लिखूं?
-अविनाश पाण्डेय “अवि”

Tuesday, January 17, 2017

पैर का काँटा

"ना किसी हमसफ़र, ना किसी हमनशीं से निकलेगा,
हमारे पैर का काँटा है, हमीं से निकलेगा ।"
लोग आपको अथाह सलाह देंगे, कभी रास्ते की सघनता और विकटता के बारे में, कभी काँटे की नोक और तीखी धार के बारे में, और बाबू मोसाय कुछ लोग आपके लहूलुहान पैर देखकर खेद भी प्रकट करेंगे लेकिन कोई आपका काँटा नहीं निकालेगा। उसकी चुभन का दर्द आपको ही बर्दाश्त करना है। अगली बार पैर में ना चुभे ये हुनर भी आपको ही डेवेलप करना है, और अगर चुभ जाए तो दर्द को बर्दास्त करके कर्त्तव्य पथ पर कैसे बढ़ते जाना है, ये भी आपको ही सीखना है। तो इस छोटे से पोस्ट का सार ये ही कि किसी की सहानुभूति और सहयोग, या पथ-प्रदर्शन की चिंता ना करो, अपनी नाव लो और पतवार मारते निकल पड़ो जीवन रूपी समुन्द्र में, और साहब, सफल हुए वास्को डी गामा बनोगे या कोलम्बस दुनिया आपको ही याद रखेगी, और अगर असफल हुए तो सागर की उफान मारती लहरें तुम्हारे सफ़र और साहस का सदियों तक गान करेंगी।
-अविनाश पाण्डेय

Wednesday, January 11, 2017

एकला चलो रे

निर्भरता से कमजोरी का प्रादुर्भाव होता है | निर्भर मन में कभी भी रचनात्मक विचार नहीं पनप सकते | स्वाधीन और स्वतंत्र मन से लिए गए निर्णय से विश्वास और साहस की उत्पत्ति होती है | सफलता उन्ही की दासी रही है जिन्होंने स्वयं के निर्णय में विश्वास और आस्था रखा है |

ना वृक्ष की छाया,
ना हवा का साथ,
ना प्रश्न, ना उत्तर,
ना दिशा ,ना द्वंद्व 
कर एकाग्र मन
और एकला चलो रे |
ना साथी ना दुश्मन ,
ना भूख ना भय ,
कर स्वयं पथ प्रशस्त
और एकला चलो रे |
सितारों का हाथ पकड़,
सूरज को रथ बना ,
मन शांत रख और विश्वास रख ,
ले उठा कर से गोवर्धन
और एकला चलो रे | 
-अविनाश पाण्डेय 'अवि'

Sunday, January 8, 2017

दो नयन


दो नयन तुम्हारे प्यार भरे,
कुछ कहते इनको कहने दो,
दो नयन निराले मतवाले,
पलकों पर इनको रहने दो !


मदहोश निराली ये ऑंखें,
जिनपर पलकों का पहरा है,
अहसास जगाती दिल में ये
जिनमें तेरा ही चेहरा है,
चाहत से भरे पैगाम को प्रियतम,
इन नयनो में ही रहने दो,
दो नयन निराले मतवाले,
चुपके से इशारा करने दो |


मय से छलकते जाम हैं ये,
प्यासे मन की अभिलाषा हैं,
सागर में उठती मौज हैं ये,
हैं भ्रमर भी ये, मधुशाला हैं |
इस दिव्य ज्योति के किरण पुंज से,
प्रेम का दीपक जलने दो |
दो नयन तुम्हारे मयखने,
मुझको भी शराबी बनने दो |
दो नयन तुम्हारे प्यार भरे,
अधरों पर इनको रहने दो |


हर मूक ह्रदय की बैन हैं ये,
प्यासे मन की अभिलाषा हैं,
जो कह न सके इन होठों से,
उस प्यार की ये परिभाषा हैं |
इन अधरों की ख़ामोशी हैं,
साहिल में भी तूफ़ान हैं ये,
ये विरह व्यथा को कहते हैं,
सब कुछ इनको ही कहने दो,
दो नयन तुम्हारे प्यार भरे,
कुछ कहते इनको कहने दो |
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Thursday, January 5, 2017

दोमुंहा साँप

घर पर बैठा मैं हाथ सेक रहा था, सूरज किसी कोने में छिप गया था और कई दिनों से उसके दर्शन नहीं हुए थे। विचारों में डूबा मैं चाय की चुस्की लेता दुनियादारी सोच रहा था तभी दूर से डमरू की आवाज़ सुनाई दी। मदारी मदारी कहके बच्चे दौड़ रहे थे...
मेरी भी जिज्ञासा बड़ी और मेरे अंदर का बच्चा जीवित हो गया, और चल पड़ा मैं भी। मदारी ने तरह तरह के खेल दिखाये, कभी सिक्के को गायब किया और कभी हड्डी से पानी में आग लगा दी। बच्चे खुश और स्तब्ध थे। खेला समाप्ति की और बढ़ रहा था तभी मदारी ने एक पिटारा निकाला जिसमे सबने सोचा की कोई विषहीन भुजंग नागराज होगा लेकिन जब पिटारा खोला तो अज़ीब वाक़या हुआ। उसमे से एक दोमुंहा सांप निकला।

बच्चे बड़े ही उत्सुकता भरी आँखों से उसे देख रहे थे और मेरे अंदर का बच्चा भी कुछेक पल विस्मय में डूब गया पर सोच के सागर में हिलोरें चली और विस्मय का जगह एक गहरी सोच ने ले लिया। दिनकर की मनुष्य और सांप के विपरीत मुझे ये लगने लगा कि शायद सर्प आज कल के मनु वंशियों से बेहतर हैं। क्योंकि वो तो अपने स्वभाव के अनुरूप कर्म करते हैं परंतु मनुष्य हर तरह से श्रेष्ठ अनादि काल से स्वभाव के विपरीत कर्म करता रहा है। यह जीभ निकाल के दंश नहीं मारता वरन यह चुपके से घात लगा के हमला करता है, और भाई इसके दो मुँह भी होने लगे हैं आज कल। तो कौन बेहतर है, मनुष्य या सर्प?
-अविनाश पाण्डेय 'अवि'

आक्रोश

आज मेरा मन काफी उद्वेलित और आक्रांत है। नव् वर्ष पर जो घटना बंगलौर में हुई वह देश को शर्मसार करने वाली तो है ही साथ ही यह एक प्रश्नचिह्न है आधुनिक समाज के लिए । प्रायः यही देखा गया है कि ऐसी घटनाएं होती है उसके बाद कुछ दोगलों की टिपण्णी आती है, कोई कहता है कि एक हाथ से ताली नहीं बजती, कोई कहता है मेरे घर की बेटियां बहुएं ऐसे कपडे नहीं पहनती अगर कोई ऐसे पहनेगा तो ऐसी घटनाएं तो होंगी ही। वही कोई कहता है कि जहाँ शक्कर होगा वही चीटियां आएँगी। कितना दुर्भाग्य है इस देश का जो हमेशा से कहता आता है कि - 'यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवताः', पर मुझे तो अब यही लगता है कि नारी देवी बस पुराणों में है, दुर्गा, सरश्वती, आदि की तश्वीरों में है, कही किसी मंदिरों में है। वह बस साल में दो तीन बार कभी दुर्गा पूजन पे आती है, तो कभी लक्ष्मी पूजा में आती है और जब उसे गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है तो उसी मंडप में बैठ कर चीलम, गांजा के साथ  जुआ खेला जाता है।
प्रधानमंत्री मेरे बड़े शान से कहते हैं कि भारत ऐसा देश है जहाँ स्त्रियाँ देवियाँ है और पूजी जाती है। प्रधानमंत्री जी क्या पूजा ऐसे की जाती है? स्त्री जहाँ भोग की वस्तु है वहां क्या ऐसे दावे करना गलत नहीं है? आप निर्भया को भूल गए होंगे, जो लोग इंडिया गेट पर कैंडल जलाने गये थे वो भी भूल गए होंगे, पर मेरे अंदर गुस्सा अभी भी है क्योंकि हर पल कोई ना कोई निर्भया हैवानियत की शिकार होती है और प्रधानमंत्री जी, आपके साथ बैठे हुए नेता गण ऐसी टिपण्णी जब करेंगे तो मैं किससे सवाल जवाब करूँगा? बताइये जरा? बात बस पक्ष-परिपक्ष की नहीं है बात है अब भारत की अस्मिता का।
अभी कुछ महीने पहले ऐसे ही एक फ्रांस और जर्मनी में हुई थी, जो सभ्य समाज का ढोंग पीटने वालो के ऊपर कलंक है . जब हम अपनी बहु-बेटियों की अस्मिता नहीं बचा सकते तो हम किस काम के? कब तक पहनावे को दोषी ठहराया जायेगा?

बहुत से दुशाशन तो भगवन कृष्ण के समय में भी थे पर वाशुदेव ने  तो सुदर्शन उठा लिया था आप क्या करने वाले हैं मेरे प्रधान सेवक?