Thursday, January 5, 2017

दोमुंहा साँप

घर पर बैठा मैं हाथ सेक रहा था, सूरज किसी कोने में छिप गया था और कई दिनों से उसके दर्शन नहीं हुए थे। विचारों में डूबा मैं चाय की चुस्की लेता दुनियादारी सोच रहा था तभी दूर से डमरू की आवाज़ सुनाई दी। मदारी मदारी कहके बच्चे दौड़ रहे थे...
मेरी भी जिज्ञासा बड़ी और मेरे अंदर का बच्चा जीवित हो गया, और चल पड़ा मैं भी। मदारी ने तरह तरह के खेल दिखाये, कभी सिक्के को गायब किया और कभी हड्डी से पानी में आग लगा दी। बच्चे खुश और स्तब्ध थे। खेला समाप्ति की और बढ़ रहा था तभी मदारी ने एक पिटारा निकाला जिसमे सबने सोचा की कोई विषहीन भुजंग नागराज होगा लेकिन जब पिटारा खोला तो अज़ीब वाक़या हुआ। उसमे से एक दोमुंहा सांप निकला।

बच्चे बड़े ही उत्सुकता भरी आँखों से उसे देख रहे थे और मेरे अंदर का बच्चा भी कुछेक पल विस्मय में डूब गया पर सोच के सागर में हिलोरें चली और विस्मय का जगह एक गहरी सोच ने ले लिया। दिनकर की मनुष्य और सांप के विपरीत मुझे ये लगने लगा कि शायद सर्प आज कल के मनु वंशियों से बेहतर हैं। क्योंकि वो तो अपने स्वभाव के अनुरूप कर्म करते हैं परंतु मनुष्य हर तरह से श्रेष्ठ अनादि काल से स्वभाव के विपरीत कर्म करता रहा है। यह जीभ निकाल के दंश नहीं मारता वरन यह चुपके से घात लगा के हमला करता है, और भाई इसके दो मुँह भी होने लगे हैं आज कल। तो कौन बेहतर है, मनुष्य या सर्प?
-अविनाश पाण्डेय 'अवि'

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