मेरी कवितायेँ बस चन्द अल्फ़ाज़ नहीं हैं, कुछ भावानाएँ हैं जो पन्नों में बिखरी हैं, उन्हें शब्दों में पीरोने की एक कोशिश है, कुछ यादें हैं जो अरसे से शब्दों की तलाश में थे, और उन्ही यादों में कुछ धूमिल से चेहरे, जिनको लिखने की कोशिश है...
Tuesday, October 31, 2017
माँ अचार नहीं खाती
Sunday, September 10, 2017
आज मैं कितना अकेला
आज फिर मैं अकेला,
मेरे सपने मेरे जज़्बात ,
एक कोने में बैठा अतीत का याद,
कभी खुद से लड़ता, कभी उदास,
सोचता कभी,कभी सहसा अट्ठहास,
रूठे अपने,टूटे सपने,
भविष्य का भय,
वर्तमान को संजोने का प्रयास,
इन उलझनों में सिमटता,
आज मैं कितना एकांत कितना अकेला !
Tuesday, September 5, 2017
शिक्षक
मेरे पूज्य गुरुजन,
कबीर ने कहा था- "गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त, वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त " अर्थात गुरु और पारस में अंतर होता है, पारस तो लोहे को सोना बना देता है लेकिन एक गुरु अपने शिष्य को अपने समान बना देता है । वह अपने ज्ञान गागर में से सब कुछ खाली करके अपने शिष्य को दे देता है .
मेरे गुरुजन, मैंने कभी भी आपको प्यार नहीं किया, हमेशा मैं आपको एक अलग नफरत से देखता रहा. और देखूं भी ना क्यों, आपने गणित की जटिल समस्याओ से लेकर इतिहास की पुराने से पुराने युद्धों की तिथियों को आप ने हमें याद करा दिया था. वो सभी विषय जो मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं थे वो भी आप की वजह से पढ़ा मैंने. कितना सताया है आप लोगों ने? हिंदी और अंग्रेजी की नक़ल राइटिंग में थोड़ा भी मात्रा इधर उधर होने पर आपकी डांट और उसी शब्द को सौ बार लिखने की सजा, ओह्ह कितना भयावह था वह। सुबह की प्रार्थना की लाइन से लेकर शाम को छुट्टी की घंटी बजने तक मैं यही सोचता था की कैसे समय बीत जाए और मैं इस स्कूल रूपी कैद से भाग जाऊं.
समय बीतता गया, क्लास-दर-क्लास मैं आगे बढ़ता चला गया, वो सभी सीख जो मैंने एक एक क्लास में आपसे ग्रहण किया था वो जाने अनजाने में मुझे निखारता चला गया और आज ये सोचता हूँ की कौन ऐसा प्राणी होगा जिससे मैंने कभी अच्छा ना माना लेकिन उसने बड़ी सहजता और निःस्वार्थ भाव से अपना सर्वस्व मेरे पर निछावर कर दिया क्यूंकि शायद वह ही पहला शख्स था जिसने मेरे माँ-पिता के बाद मेरे में एक इंजीनियर, एक नेता या एक भविष्य देखा था और उस भविष्य को रचने में वह बाहर से क्रूर ह्रदय बना रहा, मेरे आस पास, मेरे मन में अज्ञान का जो खर पतवार उग आया था उसे बड़ी तल्लीनता से वो हटाता रहा और मुझे आगे बढ़ने निखरने के लिए जो चाहिए था सब दिया. वह बस वो प्राणी नहीं था जो मेरा होमवर्क, मेरे एग्जाम के कॉपी घर ले जाके चेक करता था, वह लाल पेन से मेरी गलतियों को सुधारने वाला मात्र नहीं था, वह तो वो था जिसने हर तरह से मुझे अन्धकार में जलने के लिए प्रेरित किया.
मैं आज जो कुछ भी हूँ उन्ही गुरुजनो की बदौलत हूँ, नहीं तो मैं तो कुछ भी नहीं. मेरे गुरुजन, आज मैं भी आपकी तरह संपूर्ण स्वार्थ का त्याग करके उस मार्ग पर निकला हूँ जिसके लिए आपने मुझे तरासा था । कठिनाइयां तो हैं ही, कांटे भी हैं, जिनसे कभी कभी मेरा पैर लहूलुहान हो जाता है, लेकिन हार नहीं मानूंगा |
बाधाएँ आती हैं आएँ
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ
पावों के नीचे अंगारे
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ
निज हाथों में हँसते-हँसते
आग लगाकर जलना होगा
कदम मिलाकर चलना होगा |
मेरे गुरुजन, मुझे शक्ति और सामर्थ्य दें ताकि अब मैं इस समर में -न दैन्यम न पलायनम का उद्घोष करते हुए आगे बढूं और उस कर्म को सिद्ध करूँ जिसके लिए आपने मुझे निखारा, संवारा, सींचा, और आगे बढ़ने, अच्छे और सामाजिक काम करने की लिए प्रेरित किया |
कोटिशः नमन गुरुवर ।
Saturday, September 2, 2017
अभिव्यक्ति चाहता हूँ
चाह नहीं मेरी कविता सुन,
कवि मुझे पुकारा जाये,
चाह नहीं विचार सुन मेरे
बात युगों तक दुहराई जाए,
ना कवि ना विचारक
ना कोई और संज्ञा चाहता हूँ,
बस इस "बेबस" दुनिया को
संजीवनी देना चाहता हूँ,
एक मनु होने के नाते
विचारों की अभिव्यक्ति चाहता हूँ...
कलम बंधी है आज
और निष्पक्षता पर प्रश्न खड़े है
उस कलम को फिर मैं
एक पहचान देना चाहता हूँ,
उस सोई हुई आवाजों में
सिंघनाद देना चाहता हूँ,
अभिव्यक्ति नई चाहता हूँ...
-अविनाश कुमार पाण्डेय
Saturday, August 19, 2017
अंधकार अनिवार्य है
हर प्रदीप की पृष्टभूमि में
अंधकार अनिवार्य है .
बिना सघनता क्षुद्र विरलता
कर सकती विस्तार नहीं,
बिना मिले परिवेष शून्य का,
सज पाता आकार नहीं,
हर प्रदीप की पृष्टभूमि में
अंधकार अनिवार्य है .
Monday, August 14, 2017
नटकठ कान्हा को देखा क्या??
पीठ पर मोटा बस्ता लिए ,
आंखों में सपने लिए,
हाथ में मुरली, बालों में मोर पंख,
चेहरे पर वो नटकठ मुस्कान,
गले में हार, पीताम्बर पहने
नन्हें कृष्ण को आज तुमने देखा क्या?
नही देखा तो जाके देख लो ना?
अरे हाँ, कान्हा कभी अकेला नही होता,
उसके साथ राधा भी तो है,
हरे रंग की चुनरी ओढ़े,
रूप मोहिनी, श्रृंगार में उर्वशी को मात देती,
माथे की बिंदिया, हरी पीली लाल चूड़ियां,
कान के झुमके, बाज़ुबंद, नाक की नथ
पग में छम छम करते पाजेब
मासूमियत मुस्कान पहने,
एक उंगली से पिता का हाथ थामें,
उस राधा के बिना कृष्ण की कल्पना अधूरी है!!!
कुछ सालों बाद कृष्णा बड़ा होगा,
सो राधा भी बड़ी होगी,
उस राधा पर पाबंदियाँ बढ़ेंगी,
पाजेब की खनक तक को कोसा जाएगा,
पहरे और बंदिसों का एक दौर शुरू होगा!!
वैसे भी इन राधा-कान्हा के लिए कहाँ है ये सभ्य दुनिया,
उन्हे तो पैदा होते ही गला घोंट देते हैं आज कल!!
-अविनाश पाण्डेय "अवि"
Saturday, June 17, 2017
माँ और पिता
माँ…माँ संवेदना है, भावना है अहसास है
माँ…माँ-माँ संवेदना है, भावना है अहसास है
माँ…माँ जीवन के फूलों में खुशबू का वास है,
माँ…माँ रोते हुए बच्चे का खुशनुमा पलना है,
माँ…माँ मरूथल में नदी या मीठा सा झरना है,
माँ…माँ लोरी है, गीत है, प्यारी सी थाप है,
माँ…माँ पूजा की थाली है, मंत्रों का जाप है,
माँ…माँ आँखों का सिसकता हुआ किनारा है,
माँ…माँ गालों पर पप्पी है, ममता की धारा है,
माँ…माँ झुलसते दिलों में कोयल की बोली है,
माँ…माँ मेहँदी है, कुमकुम है, सिंदूर है, रोली है,
माँ…माँ कलम है, दवात है, स्याही है,
माँ…माँ परामत्मा की स्वयँ एक गवाही है,
माँ…माँ त्याग है, तपस्या है, सेवा है,
माँ…माँ फूँक से ठँडा किया हुआ कलेवा है,
माँ…माँ अनुष्ठान है, साधना है, जीवन का हवन है,
माँ…माँ जिंदगी के मोहल्ले में आत्मा का भवन है,
माँ…माँ चूडी वाले हाथों के मजबूत कधों का नाम है,
माँ…माँ काशी है, काबा है और चारों धाम है,
माँ…माँ चिंता है, याद है, हिचकी है,
माँ…माँ बच्चे की चोट पर सिसकी है,
माँ…माँ चुल्हा-धुंआ-रोटी और हाथों का छाला है,
माँ…माँ ज़िंदगी की कडवाहट में अमृत का प्याला है,
माँ…माँ पृथ्वी है, जगत है, धूरी है,
माँ बिना इस सृष्टी की कलप्ना अधूरी है,
तो माँ की ये कथा अनादि है,
ये अध्याय नही है…
…और माँ का जीवन में कोई पर्याय नहीं है,
और माँ का जीवन में कोई पर्याय नहीं है,
तो माँ का महत्व दुनिया में कम हो नहीं सकता,
और माँ जैसा दुनिया में कुछ हो नहीं सकता,
और माँ जैसा दुनिया में कुछ हो नहीं सकता,
तो मैं कला की ये पंक्तियाँ माँ के नाम करता हूँ,
और दुनिया की सभी माताओं को प्रणाम करता हूँ.
Tuesday, April 18, 2017
काश भगवान तू ना होता!!
क्या होता दुनिया मे सिर्फ़, सिर्फ़ इन्सान होते!
ना जाति, ना धर्म, ना वर्ण, ना रंग,
ना देश, ना तकरार, ना हथियार, ना जंग
ना बंधन ना बाधाएं,
ना सिमटी सीमाएं,
ना आगे बढ़ने का होड़,
ना झूठ-फ़रेब की जठजोड़
ना ईर्ष्या, ना लोभ,
ना द्वेष, ना क्षोभ,
मनुष्य स्वच्छन्द होकर विचरण करता,
प्रकृति के अद्वितीय स्वरूपों को निहारता,
तब मुझे नहीं लगता किसी भगवान की जरूरत होती।
Saturday, April 1, 2017
जरा सोचिये
Saturday, March 25, 2017
रेवती
केशव अब देर ना करो.
Monday, March 6, 2017
मैं शब्द हूँ
मैं शब्द हूँ,
सृष्टि के आदि से लेकर मानव के प्रगति का हस्ताक्षर हूँ
कहीं पत्थरों पर चोट करके अंकित हुआ,
तो कहीं हृदय पटल पर ना दिखने वाला हूँ।
मैं कुछ वर्णमाला और व्याकरण का बस मेल नहीं
मैं पावस और पावन वर्तनी का आलेख हूँ।
मैं शब्द हूँ।
रात की खामोशी में हूँ
तो पक्षियों के कलरव में हूँ,
पर्वतों को चोट करती गँगा की धार में हूँ
तो ताज़गी घोलती पूर्वा बयार में हूँ ।
मैं शब्द हूँ ।।
मैं शंकर के डमरू में हूँ
तो काबे की अज़ान में हूँ,
ठंड में ठिठुरते फ़क़ीर के दुआ में हूँ
तो बिन बोले माँ के आशीर्वाद में हूँ।
हाँ मैं शब्द हूँ !!
बस शब्द हूँ!!
Wednesday, January 18, 2017
क्या लिखूं
कभी- कभी मेरा मन अतीत के यादों में खो जाता है. उन यादों को,जब मैं कागज पर अवतरित करने की सोचता हूँ तो अपने को असमर्थ पाता हूँ . उन धुंधली तश्वीरो को बनाना वास्तव में काफी कठिन काम है. मेरी इसी असमर्थता को बयां करती मेरी कविता-
जब शब्द नहीं आते हो,
विचार बने मिट जाते हो,
कुछ करने ना करने की लाचारी हो
तब क्या लिखूं?
जब हर एक क्यारी के पौधे ,
हो जाये यूँ सडे खड़े,
जब भाव-वेदना की ज्वाला ,
सो जाये यूँ मरे पडे,
तब क्या लिखूं?
जीवन की सार्थकता पर ,
खडे हों प्रस्न अनगिनत,
झंझावत सी उठती क्रोधाग्नि,
मन को जलाये अनवरत,
तब मैं क्या लिखूं?
-अविनाश पाण्डेय “अवि”
Tuesday, January 17, 2017
पैर का काँटा
"ना किसी हमसफ़र, ना किसी हमनशीं से निकलेगा,
हमारे पैर का काँटा है, हमीं से निकलेगा ।"
लोग आपको अथाह सलाह देंगे, कभी रास्ते की सघनता और विकटता के बारे में, कभी काँटे की नोक और तीखी धार के बारे में, और बाबू मोसाय कुछ लोग आपके लहूलुहान पैर देखकर खेद भी प्रकट करेंगे लेकिन कोई आपका काँटा नहीं निकालेगा। उसकी चुभन का दर्द आपको ही बर्दाश्त करना है। अगली बार पैर में ना चुभे ये हुनर भी आपको ही डेवेलप करना है, और अगर चुभ जाए तो दर्द को बर्दास्त करके कर्त्तव्य पथ पर कैसे बढ़ते जाना है, ये भी आपको ही सीखना है। तो इस छोटे से पोस्ट का सार ये ही कि किसी की सहानुभूति और सहयोग, या पथ-प्रदर्शन की चिंता ना करो, अपनी नाव लो और पतवार मारते निकल पड़ो जीवन रूपी समुन्द्र में, और साहब, सफल हुए वास्को डी गामा बनोगे या कोलम्बस दुनिया आपको ही याद रखेगी, और अगर असफल हुए तो सागर की उफान मारती लहरें तुम्हारे सफ़र और साहस का सदियों तक गान करेंगी।
-अविनाश पाण्डेय
Wednesday, January 11, 2017
एकला चलो रे
निर्भरता से कमजोरी का प्रादुर्भाव होता है | निर्भर मन में कभी भी रचनात्मक विचार नहीं पनप सकते | स्वाधीन और स्वतंत्र मन से लिए गए निर्णय से विश्वास और साहस की उत्पत्ति होती है | सफलता उन्ही की दासी रही है जिन्होंने स्वयं के निर्णय में विश्वास और आस्था रखा है |
ना वृक्ष की छाया,
ना हवा का साथ,
ना प्रश्न, ना उत्तर,
ना दिशा ,ना द्वंद्व
कर एकाग्र मन
और एकला चलो रे |
ना साथी ना दुश्मन ,
ना भूख ना भय ,
कर स्वयं पथ प्रशस्त
और एकला चलो रे |
सितारों का हाथ पकड़,
सूरज को रथ बना ,
मन शांत रख और विश्वास रख ,
ले उठा कर से गोवर्धन
और एकला चलो रे |
-अविनाश पाण्डेय 'अवि'
Sunday, January 8, 2017
दो नयन
दो नयन तुम्हारे प्यार भरे,
कुछ कहते इनको कहने दो,
दो नयन निराले मतवाले,
पलकों पर इनको रहने दो !
मदहोश निराली ये ऑंखें,
जिनपर पलकों का पहरा है,
जिनमें तेरा ही चेहरा है,
चाहत से भरे पैगाम को प्रियतम,
दो नयन निराले मतवाले,
चुपके से इशारा करने दो |
प्यासे मन की अभिलाषा हैं,
सागर में उठती मौज हैं ये,
हैं भ्रमर भी ये, मधुशाला हैं |
इस दिव्य ज्योति के किरण पुंज से,
प्रेम का दीपक जलने दो |
मुझको भी शराबी बनने दो |
दो नयन तुम्हारे प्यार भरे,
अधरों पर इनको रहने दो |
प्यासे मन की अभिलाषा हैं,
जो कह न सके इन होठों से,
उस प्यार की ये परिभाषा हैं |
इन अधरों की ख़ामोशी हैं,
साहिल में भी तूफ़ान हैं ये,
ये विरह व्यथा को कहते हैं,
सब कुछ इनको ही कहने दो,
दो नयन तुम्हारे प्यार भरे,
कुछ कहते इनको कहने दो |
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Thursday, January 5, 2017
दोमुंहा साँप
घर पर बैठा मैं हाथ सेक रहा था, सूरज किसी कोने में छिप गया था और कई दिनों से उसके दर्शन नहीं हुए थे। विचारों में डूबा मैं चाय की चुस्की लेता दुनियादारी सोच रहा था तभी दूर से डमरू की आवाज़ सुनाई दी। मदारी मदारी कहके बच्चे दौड़ रहे थे...
मेरी भी जिज्ञासा बड़ी और मेरे अंदर का बच्चा जीवित हो गया, और चल पड़ा मैं भी। मदारी ने तरह तरह के खेल दिखाये, कभी सिक्के को गायब किया और कभी हड्डी से पानी में आग लगा दी। बच्चे खुश और स्तब्ध थे। खेला समाप्ति की और बढ़ रहा था तभी मदारी ने एक पिटारा निकाला जिसमे सबने सोचा की कोई विषहीन भुजंग नागराज होगा लेकिन जब पिटारा खोला तो अज़ीब वाक़या हुआ। उसमे से एक दोमुंहा सांप निकला।
बच्चे बड़े ही उत्सुकता भरी आँखों से उसे देख रहे थे और मेरे अंदर का बच्चा भी कुछेक पल विस्मय में डूब गया पर सोच के सागर में हिलोरें चली और विस्मय का जगह एक गहरी सोच ने ले लिया। दिनकर की मनुष्य और सांप के विपरीत मुझे ये लगने लगा कि शायद सर्प आज कल के मनु वंशियों से बेहतर हैं। क्योंकि वो तो अपने स्वभाव के अनुरूप कर्म करते हैं परंतु मनुष्य हर तरह से श्रेष्ठ अनादि काल से स्वभाव के विपरीत कर्म करता रहा है। यह जीभ निकाल के दंश नहीं मारता वरन यह चुपके से घात लगा के हमला करता है, और भाई इसके दो मुँह भी होने लगे हैं आज कल। तो कौन बेहतर है, मनुष्य या सर्प?
-अविनाश पाण्डेय 'अवि'
आक्रोश
प्रधानमंत्री मेरे बड़े शान से कहते हैं कि भारत ऐसा देश है जहाँ स्त्रियाँ देवियाँ है और पूजी जाती है। प्रधानमंत्री जी क्या पूजा ऐसे की जाती है? स्त्री जहाँ भोग की वस्तु है वहां क्या ऐसे दावे करना गलत नहीं है? आप निर्भया को भूल गए होंगे, जो लोग इंडिया गेट पर कैंडल जलाने गये थे वो भी भूल गए होंगे, पर मेरे अंदर गुस्सा अभी भी है क्योंकि हर पल कोई ना कोई निर्भया हैवानियत की शिकार होती है और प्रधानमंत्री जी, आपके साथ बैठे हुए नेता गण ऐसी टिपण्णी जब करेंगे तो मैं किससे सवाल जवाब करूँगा? बताइये जरा? बात बस पक्ष-परिपक्ष की नहीं है बात है अब भारत की अस्मिता का।